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3. संधि-विग्रह/काकोलूकियम

३.१ कौवे और उल्लू के बैर की कथा

एक बार हंस, तोता, बगुला, कोयल, चातक, कबूतर, उल्लू आदि सब पक्षियों ने सभा करके
यह सलाह की कि उनका राजा वैनतेय केवल वासुदेव की भक्ति में लगा रहता है; व्याधों से
उनकी रक्षा का कोई उपाय नहीं करता; इसलिये पक्षियों का कोई अन्य राजा चुन लिया
जाय। कई दिनों की बैठक के बाद सब ने एक सम्मति से सर्वाङग सुन्दर उल्लू को राजा
चुना।

अभिषेक की तैयारियाँ होने लगीं, विविध तीर्थों से पवित्र जल मँगाया गया, सिंहासन पर
रत्‍न जड़े गए, स्वर्णघट भरे गए, मङगल पाठ शुरु हो गया, ब्राह्मणों ने वेद पाठ शुरु कर
दिया, नर्तकियों ने नृत्य की तैयारी कर लीं; उलूकराज राज्यसिंहासन पर बैठने ही वाले थे कि
कहीं से एक कौवा आ गया।

कौवे ने सोचा यह समारोह कैसा? यह उत्सव किस लिए? पक्षियों ने भी कौवे को देखा तो
आश्चर्य में पड़ गए। उसे तो किसी ने बुलाया ही नहीं था। भिर भी, उन्होंने सुन रखा था कि
कौआ सब से चतुर कूटराजनीतिज्ञ पक्षी है; इसलिये उस से मन्त्रणा करने के लिये सब पक्षी उसके
चारों ओर इकट्‌ठे हो गए।

उलूक राज के राज्याभिषेक की बात सुन कर कौवे ने हँसते हुए कहा — “यह चुनाव ठीक नहीं
हुआ। मोर, हंस, कोयल, सारस, चक्रवाक, शुक आदि सुन्दर पक्षियों के रहते दिवान्ध उल्लू ओर
टेढ़ी नाक वाले अप्रियदर्शी पक्षी को राजा बनाना उचित नहीं है। वह स्वभाव से ही रौद्र
है और कटुभाषी है। फिर अभी तो वैनतेय राजा बैठा है। एक राजा के रहते दूसरे को राज्यासन
देना विनाशक है। पृथ्वी पर एक ही सूर्य होता है; वही अपनी आभा से सारे संसार को
प्रकाशित कर देता है। एक से अधिक सूर्य होने पर प्रलय हो जाती है। प्रलय में बहुत से सूर्य
निकल जाते हैं; उन से संसार में विपत्ति ही आती है, कल्याण नहीं होता।

राजा एक ही होता है। उसके नाम-कीर्तन से ही काम बन जाते हैं।

“यदि तुम उल्लू जैसे नीच, आलसी, कायर, व्यसनी और पीठ पीछे कटुभाषी पक्षी को राजा
बनाओगे तो नष्ट हो जाओगे।

कौवे की बात सुनकर सब पक्षी उल्लू को राज-मुकुट पहनाये बिना चले गये। केवल अभिषेक की
प्रतीक्षा करता हुआ उल्लू उसकी मित्र कृकालिका और कौवा रह गये। उल्लू ने पूछा — “मेरा
अभिषेक क्यों नहीं हुआ?”

कृकालिका ने कहा — “मित्र ! एक कौवे ने आकर रंग में भंग कर दिया। शेष सब पक्षी उड़कर
चले गये हैं, केवल वह कौवा ही यहाँ बैठा है।”

तब, उल्लू ने कौवे से कहा — “दुष्ट कौवे ! मैंने तेरा क्या बिगाड़ा था जो तूने मेरे कार्य में
विघ्न डाल दिया। आज से मेरा तेरा वंशपरंपरागत वैर रहेगा।”

यह कहकर उल्लू वहाँ से चला गया। कौवा बहुत चिन्तित हुआ वहीं बैठा रहा। उसने सोचा —
“मैंने अकारण ही उल्लू से वैर मोल ले लिया। दुसरे के मामलों में हस्तक्षेप करना और कटु सत्य
कहना भी दुःखप्रद होता है।”

यही सोचता-सोचता वह कौवा वहाँ से चला गया। तभी से कौओं और उल्लुओं में स्वाभाविक
वैर चला आता है।

३.२ हाथी और चतुर खरगोश

बड़े नाम की महिमा

एक वन में ‘चतुर्दन्त’ नाम का महाकाय हाथी रहता था। वह अपने हाथीदल का मुखिया
था। बरसों तक सूखा पड़ने के कारण वहा के सब झील, तलैया, ताल सूख गये, और वृक्ष मुरझा
गए। सब हाथियों ने मिलकर अपने गजराज चतुर्दन्त को कहा कि हमारे बच्चे भूख-प्यास से मर
गए, जो शेष हैं मरने वाले हैं। इसलिये जल्दी ही किसी बड़े तालाब की खोज की जाय।

बहुत देर सोचने के बाद चतुर्दन्त ने कहा — “मुझे एक तालाब याद आया है। वह पातालगङगा
के जल से सदा भरा रहता है। चलो, वहीं चलें।” पाँच रात की लम्बी यात्रा के बाद सब हाथी
वहाँ पहुँचे। तालाब में पानी था। दिन भर पानी में खेलने के बाद हाथियों का दल शाम को
बाहर निकला। तालाब के चारों ओर खरगोशों के अनगिनत बिल थे। उन बिलों से जमीन पोली
हो गई थी। हाथियों के पैरों से वे सब बिल टूट-फूट गए। बहुत से खरगोश भी हाथियों के पैरों
से कुचले गये। किसी की गर्दन टूट गई, किसी का पैर टूट गया। बहुत से मर भी गये।

हाथियों के वापस चले जाने के बाद उन बिलों में रहने वाले क्षत-विक्षत, लहू-लुहान
खरगोशों ने मिल कर एक बैठक की। उस में स्वर्गवासी खरगोशों की स्मृति में दुःख प्रगट किया
गया तथा भविष्य के संकट का उपाय सोचा गया। उन्होंने सोचा — आस-पास अन्यत्र कहीं जल न
होने के कारण ये हाथी अब हर रोज इसी तालाब में आया करेंगे और उनके बिलों को अपने पैरों से
रौंदा करेंगे। इस प्रकार दो चार दिनों में ही सब खरगोशों का वंशनाश हो जायगा। हाथी का
स्पर्श ही इतना भयङकर है जितना साँप का सूँघना, राजा का हँसना और मानिनी का
मान।

इस संकट से बचाने का उपाय सोचते-सोचते एक ने सुझाव रखा — “हमें अब इस स्थान को छोड़
कर अन्य देश में चले जाना चाहिए। यह परित्याग ही सर्वश्रेष्ठ नीति है। एक का परित्याग
परिवार के लिये, परिवार का गाँव के लिये, गाँव का शहर के लिये और सम्पूर्ण पृथ्वी का
परित्याग अपनी रक्षा के लिए करना पड़े तो भी कर देना चाहिये।”

किन्तु, दूसरे खरगोशों ने कहा — “हम तो अपने पिता-पितामह की भूमि को न
छोड़ेंगे।”

कुछ ने उपाय सुझाया कि खरगोशों की ओर से एक चतुर दूत हाथियों के दलपति के पास भेजा
जाय। वह उससे यह कहे कि चन्द्रमा में जो खरगोश बैठा है उसने हाथियों को इस तालाब में आने
से मना किया है। संभव है चन्द्रमास्थित खरगोश की बात को वह मान जाय।”

बहुत विचार के बाद लम्बकर्ण नाम के खरगोश को दूत बना कर हाथियों के पास भेजा गया।
लम्बकर्ण भी तालाब के रास्ते में एक ऊँचे टीले पर बैठ गया; और जब हाथियों का झुण्ड वहाँ
आया तो वह बोला — “यह तालाब चाँद का अपना तालाब है। यह मत आया करो।”

गजराज — “तू कौन है?”

लम्बकर्ण — “मैं चाँद में रहने वाला खरगोश हूँ। भगवान् चन्द्र ने मुझे तुम्हारे पास यह कहने
के लिये भेजा है कि इस तालाब में तुम मत आया करो।”

गजराज ने कहा — “जिस भगवान् चन्द्र का तुम सन्देश लाए हो वह इस समय कहाँ है?”

लम्बकर्ण — “इस समय वह तालाब में हैं। कल तुम ने खरगोशों के बिलों का नाश कर दिया
था। आज वे खरगोशों की विनति सुनकर यहाँ आये हैं। उन्हीं ने मुझे तुम्हारे पास भेजा है।”

गजराज — “ऐसा ही है तो मुझे उनके दर्शन करा दो। मैं उन्हें प्रणाम करके वापस चला
जाऊँगा।”

लम्बकर्ण अकेले गजराज को लेकर तालाब के किनारे पर ले गया। तालाब में चाँद की छाया
पड़ रही थी। गजराज ने उसे ही चाँद समझ कर प्रणाम किया और लौट पड़ा। उस दिन के बाद
कभी हाथियों का दल तालाब के किनारे नहीं आया।

३.३ धूर्त बिल्ली का न्याय

बिल्ली का न्याय

एक जंगल में विशाल वृक्ष के तने में एक खोल के अन्दर कपिंजल नाम का तीतर रहता था। एक
दिन वह तीतर अपने साथियों के साथ बहुत दूर के खेत में धान की नई-नई कोंपलें खाने चला
गया।

बहुत रात बीतने के बाद उस वृक्ष के खाली पडे़ खोल में ‘शीघ्रगो’ नाम का खरगोश घुस
आया और वहीँ रहने रहने लगा।

कुछ दिन बाद कपिंजल तीतर अचानक ही आ गया। धान की नई-नई कोंपले खाने के बाद वह
खूब मोटा-ताजा हो गया था। अपनी खोल में आने पर उसने देखा कि वहाँ एक खरगोश बैठा है।
उसने खरगोश को अपनी जगह खाली करने को कहा।

खरगोश भी तीखे स्वभाव का था; बोला — “यह घर अब तेरा नहीं है। वापी, कूप, तालाब
और वृक्ष के घरों का यही नियम है कि जो भी उनमें बसेरा करले उसका ही वह घर हो जाता
है। घर का स्वामित्व केवल मनुष्यों के लिये होता है , पक्षियों के लिये गृहस्वामित्व का कोई
विधान नहीं है।”

झगड़ा बढ़ता गया। अन्त में, कर्पिजल ने किसी भी तीसरे पंच से इसका निर्णय करने की
बात कही। उनकी लड़ाई और समझौते की बातचीत को एक जंगली बिल्ली सुन रही थी। उसने
सोचा, मैं ही पंच बन जाऊँ तो कितना अच्छा है; दोनों को मार कर खाने का अवसर मिल
जायगा।

यह सोच हाथ में माला लेकर सूर्य की ओर मुख कर के नदी के किनारे कुशासन बिछाकर वह
आँखें मूंद बैठ गयी और धर्म का उपदेश करने लगी।

उसके धर्मोपदेश को सुनकर खरगोश ने कहा — “यह देखो ! कोई तपस्वी बैठा है, इसी को
पंच बनाकर पूछ लें।”

तीतर बिल्ली को देखकर डर गया; दूर से बोला — “मुनिवर ! तुम हमारे झगड़े का
निपटारा कर दो। जिसका पक्ष धर्म-विरुद्ध होगा उसे तुम खा लेना।”

यह सुन बिल्ली ने आँख खोली और कहा — “राम-राम ! ऐसा न कहो। मैंने हिंसा का
नारकीय मार्ग छोड़ दिया है। अतः मैं धर्म-विरोधी पक्ष की भी हिंसा नहीं करुँगी। हाँ,
तुम्हारा निर्णय करना मुझे स्वीकार है। किन्तु, मैं वृद्ध हूँ; दूर से तुम्हारी बात नहीं सुन
सकती, पास आकर अपनी बात कहो।”

बिल्ली की बात पर दोनों को विश्वास हो गया; दोनों ने उसे पंच मान लिया, और उसके
पास आगये। उसने भी झपट्टा मारकर दोनों को एक साथ ही पंजों में दबोच लिया।

३.४ बकरा, ब्राह्मण और तीन ठग

किसी गांव में सम्भुदयाल नामक एक ब्राह्मण रहता था। एक बार वह अपने यजमान से एक
बकरा लेकर अपने घर जा रहा था। रास्ता लंबा और सुनसान था। आगे जाने पर रास्ते में उसे
तीन ठग मिले। ब्राह्मण के कंधे पर बकरे को देखकर तीनों ने उसे हथियाने की योजना
बनाई।

एक ने ब्राह्मण को रोककर कहा, “पंडित जी यह आप अपने कंधे पर क्या उठा कर ले जा रहे
हैं। यह क्या अनर्थ कर रहे हैं? ब्राह्मण होकर कुत्ते को कंधों पर बैठा कर ले जा रहे हैं।”

ब्राह्मण ने उसे झिड़कते हुए कहा, “अंधा हो गया है क्या? दिखाई नहीं देता यह बकरा
है।”

पहले ठग ने फिर कहा, “खैर मेरा काम आपको बताना था। अगर आपको कुत्ता ही अपने कंधों
पर ले जाना है तो मुझे क्या? आप जानें और आपका काम।”

थोड़ी दूर चलने के बाद ब्राह्मण को दूसरा ठग मिला। उसने ब्राह्मण को रोका और कहा,
“पंडित जी क्या आपको पता नहीं कि उच्चकुल के लोगों को अपने कंधों पर कुत्ता नहीं लादना
चाहिए।”

पंडित उसे भी झिड़क कर आगे बढ़ गया। आगे जाने पर उसे तीसरा ठग मिला।

उसने भी ब्राह्मण से उसके कंधे पर कुत्ता ले जाने का कारण पूछा। इस बार ब्राह्मण को
विश्वास हो गया कि उसने बकरा नहीं बल्कि कुत्ते को अपने कंधे पर बैठा रखा है।

थोड़ी दूर जाकर, उसने बकरे को कंधे से उतार दिया और आगे बढ़ गया। इधर तीनों ठग ने
उस बकरे को मार कर खूब दावत उड़ाई।

इसीलिए कहते हैं कि किसी झूठ को बार-बार बोलने से वह सच की तरह लगने लगता है।
अतः अपने दिमाग से काम लें और अपने आप पर विश्वास करें।

३.५ कबूतर का जोड़ा और शिकारी

एक जगह एक लोभी और निर्दय व्याध रहता था। पक्षियों को मारकर खाना ही उसका
काम था। इस भयङकर काम के कारण उसके प्रियजनों ने भी उसका त्याग कर दिया था। तब से
वह अकेला ही, हाथ में जाल और लाठी लेकर जङगलों में पक्षियों के शिकार के लिये घूमा करता
था।

एक दिन उसके जाल में एक कबूतरी फँस गई। उसे लेकर जब वह अपनी कुटिया की ओर चला तो
आकाश बादलों से घिर गया। मूसलधार वर्षा होने लगी। सर्दी से ठिठुर कर व्याध आश्रय की
खोज करने लगा। थोड़ी दूरी पर एक पीपल का वृक्ष था। उसके खोल में घुसते हुए उसने कहा —
“यहाँ जो भी रहता है, मैं उसकी शरण जाता हूँ। इस समय जो मेरी सहायता करेगा उसका
जन्मभर ऋणी रहूँगा।”

उस खोल में वही कबूतर रहता था जिसकी पत्‍नी को व्याध ने जाल में फँसाया था। कबूतर
उस समय पत्‍नी के वियोग से दुःखी होकर विलाप कर रहा था। पति को प्रेमातुर पाकर
कबूतरी का मन आनन्द से नाच उठा। उसने मन ही मन सोचा — ‘मेरे धन्य भाग्य हैं जो ऐसा
प्रेमी पति मिला है। पति का प्रेम ही पत्‍नी का जीवन है। पति की प्रसन्नता से ही
स्त्री-जीवन सफल होता है। मेरा जीवन सफल हुआ।’ यह विचार कर वह पति से बोली —

“पतिदेव ! मैं तुम्हारे सामने हूँ। इस व्याध ने मुझे बाँध लिया है। यह मेरे पुराने कर्मों का
फल है। हम अपने कर्मफल से ही दुःख भोगते हैं। मेरे बन्धन की चिन्ता छोड़कर तुम इस समय अपने
शरणागत अतिथि की सेवा करो। जो जीव अपने अतिथि का सत्कार नहीं करता उसके सब पुण्य
छूटकर अतिथि के साथ चले जाते हैं और सब पाप वहीं रह जाते हैं।”

पत्‍नी की बात सुन कर कबूतर ने व्याध से कहा — “चिन्ता न करो वधिक ! इस घर को भी
अपना ही जानो। कहो,मैं तुम्हारी कौन सी सेवा कर सकता हूँ?”

व्याध — “मुझे सर्दी सता रही है, इसका उपाय कर दो।”

कबूतर ने लकड़ियाँ इकठ्ठी करके जला दीं। और कहा — “तुम आग सेक कर सर्दी दूर कर
लो।”

कबूतर को अब अतिथि-सेवा के लिये भोजन की चिन्ता हुई। किन्तु, उसके घोंसले में तो अन्न
का एक दाना भी नहीं था। बहुत सोचने के बाद उसने अपने शरीर से ही व्याध की भूख मिटाने
का विचार किया। यह सोच कर वह महात्मा कबूतर स्वयं जलती आग में कूद पड़ा। अपने शरीर
का बलिदान करके भी उसने व्याध के तर्पण करने का प्रण पूरा किया।

व्याध ने जब कबूतर का यह अद्‌भुत बलिदान देखा तो आश्चर्य में डूब गया। उसकी आत्मा उसे
धिक्कारने लगी। उसी क्षण उसने कबूतरी को जाल से निकाल कर मुक्त कर दिया और पक्षियों
को फँसाने के जाल व अन्य उपकरणों को तोड़-फोड़ कर फैंक दिया।

कबूतरी अपने पति को आग में जलता देखकर विलाप करने लगी। उसने सोचा — “अपने पति के
बिना अब मेरे जीवन का प्रयोजन ही क्या है? मेरा संसार उजड़ गया, अब किसके लिये प्राण
धारण करुँ?” यह सोच कर वह पतिव्रत भी आग में कूद पड़ी। इन दोंनों के बलिदान पर आकाश से
पुष्पवर्षा हुई। व्याध ने भी उस दिन से प्राणी-हिंसा छोड़ दी।

३.६ ब्राह्मण और सर्प की कथा

लालच बुरी बला है

किसी नगर में हरिदत्त नाम का एक ब्राह्मण निवास करता था। उसकी खेती साधारण ही
थी, अतः अधिकांश समय वह खाली ही रहता था। एक बार ग्रीष्म ऋतु में वह इसी प्रकार
अपने खेत पर वृक्ष की शीतल छाया में लेटा हुआ था। सोए-सोए उसने अपने समीप ही सर्प का
बिल देखा, उस पर सर्प फन फैलाए बैठा था।

उसको देखकर वह ब्राह्मण विचार करने लगा कि हो-न-हो, यही मेरे क्षेत्र का देवता है।
मैंने कभी इसकी पूजा नहीं की। अतः मैं आज अवश्य इसकी पूजा करूंगा। यह विचार मन में आते ही
वह उठा और कहीं से जाकर दूध मांग लाया।

उसे उसने एक मिट्टी के बरतन में रखा और बिल के समीप जाकर बोला, “हे क्षेत्रपाल! आज
तक मुझे आपके विषय में मालूम नहीं था, इसलिए मैं किसी प्रकार की पूजा-अर्चना नहीं कर
पाया। आप मेरे इस अपराध को क्षमा कर मुझ पर कृपा कीजिए और मुझे धन-धान्य से समृद्ध
कीजिए।”

इस प्रकार प्रार्थना करके उसने उस दूध को वहीं पर रख दिया और फिर अपने घर को लौट
गया। दूसरे दिन प्रातःकाल जब वह अपने खेत पर आया तो सर्वप्रथम उसी स्थान पर गया।
वहां उसने देखा कि जिस बरतन में उसने दूध रखा था उसमें एक स्वर्णमुद्रा रखी हुई है।

उसने उस मुद्रा को उठाकर रख लिया। उस दिन भी उसने उसी प्रकार सर्प की पूजा की
और उसके लिए दूध रखकर चला गया। अगले दिन प्रातःकाल उसको फिर एक स्वर्णमुद्रा
मिली।इस प्रकार अब नित्य वह पूजा करता और अगले दिन उसको एक स्वर्णमुद्रा मिल जाया
करती थी।

कुछ दिनों बाद उसको किसी कार्य से अन्य ग्राम में जाना पड़ा। उसने अपने पुत्र को उस
स्थान पर दूध रखने का निर्देश दिया। तदानुसार उस दिन उसका पुत्र गया और वहां दूध रख
आया। दूसरे दिन जब वह पुनः दूध रखने के लिए गया तो देखा कि वहां स्वर्णमुद्रा रखी हुई
है।

उसने उस मुद्रा को उठा लिया और वह मन ही मन सोचने लगा कि निश्चित ही इस बिल के
अंदर स्वर्णमुद्राओं का भण्डार है। मन में यह विचार आते ही उसने निश्चय किया कि बिल को
खोदकर सारी मुद्राएं ले ली जाएं। सर्प का भय था। किन्तु जब दूध पीने के लिए सर्प बाहर
निकला तो उसने उसके सिर पर लाठी का प्रहार किया।

इससे सर्प तो मरा नहीं और इस प्रकार से क्रुद्ध होकर उसने ब्राह्मण-पुत्र को अपने
विषभरे दांतों से काटा कि उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। उसके सम्बधियों ने उस लड़के को वहीं
उसी खेत पर जला दिया।

कहा भी जाता है लालच का फल कभी मीठा नहीं होता है।

३.७ बूढा आदमी, युवा पत्नी और चोर

गलत मार्ग का परिणाम

किसी ग्राम में किसान दम्पती रहा करते थे। किसान तो वृद्ध था पर उसकी पत्नी युवती
थी। अपने पति से संतुष्ट न रहने के कारण किसान की पत्नी सदा पर-पुरुष की टोह में रहती
थी, इस कारण एक क्षण भी घर में नहीं ठहरती थी। एक दिन किसी ठग ने उसको घर से
निकलते हुए देख लिया।

उसने उसका पीछा किया और जब देखा कि वह एकान्त में पहुँच गई तो उसके सम्मुख जाकर
उसने कहा, “देखो, मेरी पत्नी का देहान्त हो चुका है। मैं तुम पर अनुरक्त हूं। मेरे साथ
चलो।”

वह बोली, “यदि ऐसी ही बात है तो मेरे पति के पास बहुत-सा धन है, वृद्धावस्था के
कारण वह हिलडुल नहीं सकता। मैं उसको लेकर आती हूं, जिससे कि हमारा भविष्य सुखमय
बीते।”

“ठीक है जाओ। कल प्रातःकाल इसी समय इसी स्थान पर मिल जाना।”

इस प्रकार उस दिन वह किसान की स्त्री अपने घर लौट गई। रात होने पर जब उसका
पति सो गया, तो उसने अपने पति का धन समेटा और उसे लेकर प्रातःकाल उस स्थान पर जा
पहुंची। दोनों वहां से चल दिए। दोनों अपने ग्राम से बहुत दूर निकल आए थे कि तभी मार्ग में
एक गहरी नदी आ गई।

उस समय उस ठग के मन में विचार आया कि इस औरत को अपने साथ ले जाकर मैं क्या करूंगा।
और फिर इसको खोजता हुआ कोई इसके पीछे आ गया तो वैसे भी संकट ही है। अतः किसी प्रकार
इससे सारा धन हथियाकर अपना पिण्ड छुड़ाना चाहिए। यह विचार कर उसने कहा, “नदी बड़ी
गहरी है। पहले मैं गठरी को उस पार रख आता हूं, फिर तुमको अपनी पीठ पर लादकर उस पार
ले चलूंगा। दोनों को एक साथ ले चलना कठिन है।”

“ठीक है, ऐसा ही करो।” किसान की स्त्री ने अपनी गठरी उसे पकड़ाई तो ठग बोला,
“अपने पहने हुए गहने-कपड़े भी दे दो, जिससे नदी में चलने में किसी प्रकार की कठिनाई नहीं
होगी। और कपड़े भीगेंगे भी नहीं।”

उसने वैसा ही किया। उन्हें लेकर ठग नदी के उस पार गया तो फिर लौटकर आया ही
नहीं।

वह औरत अपने कुकृत्यों के कारण कहीं की नहीं रही।

इसलिए कहते हैं कि अपने हित के लिए गलत कर्मों का मार्ग नहीं अपनाना चाहिए।

३.८ ब्राह्मण, चोर, और दानव की कथा

शत्रु का शत्रु मित्र

एक गाँव में द्रोण नाम का ब्राह्मण रहता था। भिक्षा माँग कर उसकी जीविका चलती
थी। सर्दी-गर्मी रोकने के लिये उसके पास पर्याप्त वस्त्र भी नहीं थे। एक बार किसी यजमान
ने ब्राह्मण पर दया करके उसे बैलों की जोड़ी दे दी। ब्राह्मण ने उनका भरन-पोषण बड़े यत्‍न से
किया। आस-पास से घी-तेल-अनाज माँगकर भी उन बैलों को भरपेट खिलाता रहा। इससे दोनों
बैल खूब मोटे-ताजे हो गये। उन्हें देखकर एक चोर के मन में लालच आ गया। उसने चोरी करके
दोनों बैलों को भगा लेजाने का निश्चय कर लिया। इस निश्चय के साथ जब वह अपने गाँव से
चला तो रास्ते में उसे लंबे-लंबे दांतों, लाल आँखों, सूखे बालों और उभरी हुई नाक वाला एक
भयङकर आदमी मिला।

उसे देखकर चोर ने डरते-डरते पूछा — “तुम कौन हो?”

उस भयङकर आकृति वाले आदमी ने कहा — “मैं ब्रह्मराक्षस हूँ, पास वाले ब्राह्मण के घर से
बैलों की जोड़ी चुराने जा रहा हूँ।”

राक्षस ने कहा — “मित्र ! पिछले छः दिन से मैंने कुछ भी नहीं खाया। चलो, आज उस
ब्राह्मण को मारकर ही भूख मिटाऊँगा। हम दोनों एक ही मार्ग के यात्री हैं। चलो,
साथ-साथ चलें।”

शाम को दोनों छिपकर ब्राह्मण के घर में घुस गये। ब्राह्मण के शैयाशायी होने के बाद
राक्षस जब उसे खाने के लिये आगे बढ़ने लगा तो चोर ने कहा — “मित्र ! यह बात न्यायानुकूल
नहीं है। पहले मैं बैलों की जोड़ी चुरा लूँ, तब तू अपना काम करना।”

राक्षस ने कहा — “कभी बैलों को चुराते हुए खटका हो गया और ब्राह्मण जाग पड़ा तो
अनर्थ हो जायगा, मैं भूखा ही रह जाऊँगा। इसलिये पहले मुझे ब्राह्मण को खा लेने दे, बाद में
तुम चोरी कर लेना।”

चोर ने उत्तर दिया — “ब्राह्मण की हत्या करते हुए यदि ब्राह्मण बच गया और जागकर
उसने रखवाली शुरु कर दी तो मैं चोरी नहीं कर सकूंगा। इसलिये पहले मुझे अपना काम कर लेने
दे।”

दोनों में इस तरह की कहा-सुनी हो ही रही थी कि शोर सुनकर ब्राह्मण जाग उठा। उसे
जागा हुआ देख चोर ने ब्राह्मण से कहा — “ब्राह्मण ! यह राक्षस तेरी जान लेने लगा था, मैंने
इसके हाथ से तेरी रक्षा कर दी।”

राक्षस बोला — “ब्राह्मण ! यह चोर तेरे बैलों को चुराने आया था, मैंने तुझे बचा
लिया।”

इस बातचीत में ब्राह्मण सावधान हो गया। लाठी उठाकर वह अपनी रक्षा के लिये तैयार
हो गया। उसे तैयार देखकर दोनों भाग गये।

३.९ दो सांपों की कथा

घर का भेदी

एक नगर में देवशक्ति नाम का राजा रहता था। उसके पुत्र के पेट में एक साँप चला गया
था। उस साँप ने वहीं अपना बिल बना लिया था। पेट में बैठे साँप के कारण उसके शरीर का
प्रति-दिन क्षय होता जा रहा था। बहुत उपचार करने के बाद भी जब स्वास्थ्य में कोई सुधार
न हुआ तो अत्यन्त निराश होकर राजपुत्र अपने राज्य से बहुत दूर दूसरे प्रदेश में चला गया। और
वहाँ सामान्य भिखारी की तरह मन्दिर में रहने लगा।

उस प्रदेश के राजा बलि की दो नौजवान लड़कियाँ थीं। वह दोनों प्रति-दिन सुबह अपने
पिता को प्रणाम करने आती थीं। उनमें से एक राजा को नमस्कार करती हुई कहती थी —

“महाराज ! जय हो। आप की कृपा से ही संसार के सब सुख हैं।” दूसरी कहती थी —
“महाराज ! ईश्‍वर आप के कर्मों का फल दे।” दूसरी के वचन को सुनकर महाराज क्रोधित हो
जाता था। एक दिन इसी क्रोधावेश में उसने मन्त्रि को बुलाकर आज्ञा दी — “मन्त्रि ! इस
कटु बोलने वाली लड़की को किसी गरीब परदेसी के हाथों में दे दो, जिससे यह अपने कर्मों का
फल स्वयं चखे।”

मन्त्रियों ने राजाज्ञा से उस लड़की का विवाह मन्दिर में सामान्य भिखारी की तरह ठहरे
परदेसी राजपुत्र के साथ कर दिया। राजकुमारी ने उसे ही अपना पति मानकर सेवा की। दोनों
ने उस देश को छोड़ दिया।

थोड़ी दूर जाने पर वे एक तालाब के किनारे ठहरे। वहाँ राजपुत्र को छोड़कर उसकी पत्‍नी
पास के गाँव से घी-तेल-अन्न आदि सौदा लेने गई। सौदा लेकर जब वह वापिस आ रही थी , तब
उसने देखा कि उसका पति तालाब से कुछ दूरी पर एक साँप के बिल के पास सो रहा है। उसके
मुख से एक फनियल साँप बाहर निकलकर हवा खा रहा था। एक दूसरा साँप भी अपने बिल से
निकल कर फन फैलाये वहीं बैठा था। दोनों में बातचीत हो रही थी।

बिल वाला साँप पेट वाले साँप से कह रहा था — “दुष्ट ! तू इतने सर्वांग सुन्दर राजकुमार
का जीवन क्यों नष्ट कर रहा है?”

पेट वाला साँप बोला — “तू भी तो इस बिल में पड़े स्वर्णकलश को दूषित कर रहा
है।”

बिल वाला साँप बोला — “तो क्या तू समझता है कि तुझे पेट से निकालने की दवा किसी
को भी मालूम नहीं। कोई भी व्यक्ति राजकुमार को उकाली हुई कांजी की राई पिलाकर तुझे
मार सकता है।”

इस तरह दोनों ने एक दूसरे का भेद खोल दिया। राजकन्या ने दोनों की बातें सुन ली थीं।
उसने उनकी बताई विधियों से ही दोनों का नाश कर दिया। उसका पति भी नीरोग होगया;
और बिल में से स्वर्ण-भरा कलश पाकर गरीबी भी दूर होगई। तब, दोनों अपने देश को चल
दिये। राजपुत्र के माता-पिता दोनों ने उनका स्वागत किया।

३.१० चुहिया का स्वयंवर

चुहिया का स्वयंवर

गंगा नदी के किनारे एक तपस्वियों का आश्रम था। वहाँ याज्ञवल्क्य नाम के मुनि रहते थे।
मुनिवर एक नदी के किनारे जल लेकर आचमन कर रहे थे कि पानी से भरी हथेली में ऊपर से एक
चुहिया गिर गई। उस चुहिया को आकाश मेम बाज लिये जा रहा था। उसके पंजे से छूटकर वह
नीचे गिर गई। मुनि ने उसे पीपल के पत्ते पर रखा और फिर से गंगाजल में स्नान किया। चुहिया
में अभी प्राण शेष थे। उसे मुनि ने अपने प्रताप से कन्या का रुप दे दिया, और अपने आश्रम में ले
आये। मुनि-पत्‍नी को कन्या अर्पित करते हुए मुनि ने कहा कि इसे अपनी ही लड़की की तरह
पालना। उनके अपनी कोई सन्तान नहीं थी , इसलिये मुनिपत्‍नी ने उसका लालन-पालन बड़े प्रेम
से किया। १२ वर्ष तक वह उनके आश्रम में पलती रही।

जब वह विवाह योग्य अवस्था की हो गई तो पत्‍नी ने मुनि से कहा — “नाथ ! अपनी
कन्या अब विवाह योग्य हो गई है। इसके विवाह का प्रबन्ध कीजिये।” मुनि ने कहा — “मैं
अभी आदित्य को बुलाकर इसे उसके हाथ सौंप देता हूँ। यदि इसे स्वीकार होगा तो उसके साथ
विवाह कर लेगी, अन्यथा नहीं।” मुनि ने यह त्रिलोक का प्रकाश देने वाला सूर्य पतिरुप से
स्वीकार है?”

पुत्री ने उत्तर दिया — “तात ! यह तो आग जैसा गरम है, मुझे स्वीकार नहीं। इससे अच्छा
कोई वर बुलाइये।”

मुनि ने सूर्य से पूछा कि वह अपने से अच्छा कोई वर बतलाये।

सूर्य ने कहा — “मुझ से अच्छे मेघ हैं, जो मुझे ढककर छिपा लेते हैं।”

मुनि ने मेघ को बुलाकर पूछा — “क्या यह तुझे स्वीकार है?”

कन्या ने कहा — “यह तो बहुत काला है। इससे भी अच्छे किसी वर को बुलाओ।”

मुनि ने मेघ से भी पूछा कि उससे अच्छा कौन है। मेघ ने कहा, “हम से अच्छी वायु हिअ, जो
हमें उड़ाकर दिशा-दिशाओं में ले जाती है”।

मुनि ने वायु को बुलाया और कन्या से स्वीकृति पूछी। कन्या ने कहा — “तात ! यह तो
बड़ी चंचल है। इससे भी किसी अच्छे वर को बुलाओ।”

मुनि ने वायु से भी पूछा कि उस से अच्छा कौन है। वायु ने कहा, “मुझ से अच्छा पर्वत है,
जो बड़ी से बड़ी आँधी में भी स्थिर रहता है।”

मुनि ने पर्वत को बुलाया तो कन्या ने कहा — “तात ! यह तो बड़ा कठोर और गंभीर है,
इससे अधिक अच्छा कोई वर बुलाओ।”

मुनि ने पर्वत से कहा कि वह अपने से अच्छा कोई वर सुझाये। तब पर्वत ने कहा — “मुझ से
अच्छा चूहा है, जो मुझे तोड़कर अपना बिल बना लेता है।”

मुनि ने तब चूहे को बुलाया और कन्या से कहा — “पुत्री ! यह मूषकराज तुझे स्वीकार हो
तो इससे विवाह कर ले।”

मुनिकन्या ने मूषकराज को बड़े ध्यान से देखा। उसके साथ उसे विलक्षण अपनापन अनुभव हो
रहा था। प्रथम दृष्टि में ही वह उस पर मुग्ध होगई और बोली — “मुझे मूषिका बनाकर
मूषकराज के हाथ सौंप दीजिये।”

मुनि ने अपने तपोबल से उसे फिर चुहिया बना दिया और चूहे के साथ उसका विवाह कर
दिया।

३.११ सुनहरे गोबर की कथा

मूर्खमंडली

एक पर्वतीय प्रदेश के महाकाय वृक्ष पर सिन्धुक नाम का एक पक्षी रहता था। उसकी
विष्ठा में स्वर्ण-कण होते थे। एक दिन एक व्याध उधर से गुजर रहा था। व्याध को उसकी
विष्ठा के स्वर्णमयी होने का ज्ञान नहीं था। इससे सम्भव था कि व्याध उसकी उपेक्षा करके
आगे निकल जाता। किन्तु मूर्ख सिन्धुक पक्षी ने वृक्ष के ऊपर से व्याध के सामने ही
स्वर्ण-कण-पूर्ण विष्ठा कर दी। उसे देख व्याध ने वृक्ष पर जाल फैला दिया और स्वर्ण के लोभ
से उसे पकड़ लिया।

उसे पकड़कर व्याध अपने घर ले आया। वहाँ उसे पिंजरे में रख लिया। लेकिन, दूसरे ही दिन
उसे यह डर सताने लगा कि कहीं कोई आदमी पक्षी की विष्ठा के स्वर्णमय होने की बात राजा
को बता देगा तो उसे राजा के सम्मुख दरबार में पेश होना पड़ेगा। संभव है राजा उसे दण्ड भी
दे। इस भय से उसने स्वयं राजा के सामने पक्षी को पेश कर दिया।

राजा ने पक्षी को पूरी सावधानी के साथ रखने की आज्ञा निकाल दी। किन्तु राजा के
मन्त्री ने राजा को सलाह दी कि, “इस व्याध की मूर्खतापूर्ण बात पर विश्‍वास करके उपहास
का पात्र न बनो। कभी कोई पक्षी भी स्वर्ण-मयी विष्ठा दे सकता है? इसे छोड़ दीजिये।”
राजा ने मन्त्री की सलाह मानकर उसे छोड़ दिया। जाते हुए वह राज्य के प्रवेश-द्वार पर
बैठकर फिर स्वर्णमयी विष्ठा कर गया; और जाते-जाते कहता गया :-

“पूर्वं तावदहं मूर्खो द्वितीयः पाशबन्धकः। ततो राजा च मन्त्रि च सर्वं वै मूर्खमण्डलम्

अर्थात्, पहले तो मैं ही मूर्ख था, जिसने व्याध के सामने विष्ठा की; फिर व्याध ने
मूर्खता दिखलाई जो व्यर्थ ही मुझे राजा के सामने ले गया; उसके बाद राजा और मन्त्री भी
मूर्खों के सरताज निकले। इस राज्य में सब मूर्ख-मंडल ही एकत्र हुआ है।

३.१२ बोलने वाली गुफा

बोलने वाली मांद

किसी जंगल में एक शेर रहता था। एक बार वह दिन-भर भटकता रहा, किंतु भोजन के लिए
कोई जानवर नहीं मिला। थककर वह एक गुफा के अंदर आकर बैठ गया। उसने सोचा कि रात में
कोई न कोई जानवर इसमें अवश्य आएगा। आज उसे ही मारकर मैं अपनी भूख शांत करुँगा।

उस गुफा का मालिक एक सियार था। वह रात में लौटकर अपनी गुफा पर आया। उसने गुफा
के अंदर जाते हुए शेर के पैरों के निशान देखे। उसने ध्यान से देखा। उसने अनुमान लगाया कि शेर
अंदर तो गया, परंतु अंदर से बाहर नहीं आया है। वह समझ गया कि उसकी गुफा में कोई शेर
छिपा बैठा है।

चतुर सियार ने तुरंत एक उपाय सोचा। वह गुफा के भीतर नहीं गया।उसने द्वार से आवाज
लगाई-

‘ओ मेरी गुफा, तुम चुप क्यों हो? आज बोलती क्यों नहीं हो? जब भी मैं बाहर से आता हूँ,
तुम मुझे बुलाती हो। आज तुम बोलती क्यों नहीं हो?’

गुफा में बैठे हुए शेर ने सोचा, ऐसा संभव है कि गुफा प्रतिदिन आवाज देकर सियार को
बुलाती हो। आज यह मेरे भय के कारण मौन है। इसलिए आज मैं ही इसे आवाज देकर अंदर बुलाता
हूँ। ऐसा सोचकर शेर ने अंदर से आवाज लगाई और कहा -‘आ जाओ मित्र, अंदर आ जाओ।’

आवाज सुनते ही सियार समझ गया कि अंदर शेर बैठा है। वह तुरंत वहाँ से भाग गया। और
इस तरह सियार ने चालाकी से अपनी जान बचा ली।

३.१३ सांप की सवारी करने वाले मेढकों की
कथा

वंश की रक्षा

किसी पर्वत प्रदेश में मन्दविष नाम का एक वृद्ध सर्प रहा करता था। एक दिन वह
विचार करने लगा कि ऐसा क्या उपाय हो सकता है, जिससे बिना परिश्रम किए ही उसकी
आजीविका चलती रहे। उसके मन में तब एक विचार आया। वह समीप के मेढकों से भरे तालाब के
पास चला गया। वहां पहुँचकर वह बड़ी बेचैनी से इधर-उधर घूमने लगा। उसे इस प्रकार घूमते
देखकर तालाब के किनारे एक पत्थर पर बैठे मेढक को आश्चर्य हुआ तो उसने पूछा, “मामा! आज
क्या बात है? शाम हो गई है, किन्तु तुम भोजन-पानी की व्यवस्था नहीं कर रहे हो?” सर्प
बड़े दुःखी मन से कहने लगा, “बेटे! क्या करूं, मुझे तो अब भोजन की अभिलाषा ही नहीं रह गई
है। आज बड़े सवेरे ही मैं भोजन की खोज में निकल पड़ा था। एक सरोवर के तट पर मैंने एक मेढक
को देखा। मैं उसको पकड़ने की सोच ही रहा था कि उसने मुझे देख लिया। समीप ही कुछ
ब्राह्मण स्वाध्याय में लीन थे, वह उनके मध्य जाकर कहीं छिप गया।” उसको तो मैंने फिर देखा
नहीं। किन्तु उसके भ्रम में मैंने एक ब्राह्मण के पुत्र के अंगूठे को काट लिया। उससे उसकी तत्काल
मृत्यु हो गई। उसके पिता को इसका बड़ा दुःख हुआ और उस शोकाकुल पिता ने मुझे शाप देते हुए
कहा, “दुष्ट! तुमने मेरे पुत्र को बिना किसी अपराध के काटा है, अपने इस अपराध के कारण
तुमको मेढकों का वाहन बनना पड़ेगा।” “बस, तुम लोगों के वाहन बनने के उद्देश्य से ही मैं यहां
तुम लोगों के पास आया हूं।” मेढक सर्प से यह बात सुनकर अपने परिजनों के पास गया और उनको
भी उसने सर्प की वह बात सुना दी। इस प्रकार एक से दूसरे और दूसरे से तीसरे कानों में जाती
हुई यह बात सब मेढकों तक पहुँच गई। उनके राजा जलपाद को भी इसका समाचार मिला। उसको
यह सुनकर बड़ा आश्चर्य हुआ। सबसे पहले वही सर्प के पास जाकर उसके फन पर चढ़ गया। उसे
चढ़ा हुआ देखकर अन्य सभी मेढक उसकी पीठ पर चढ़ गए। सर्प ने किसी को कुछ नहीं कहा।
मन्दविष ने उन्हें भांति-भांति के करतब दिखाए। सर्प की कोमल त्वचा के स्पर्श को पाकर
जलपाद तो बहुत ही प्रसन्न हुआ। इस प्रकार एक दिन निकल गया। दूसरे दिन जब वह उनको
बैठाकर चला तो उससे चला नहीं गया। उसको देखकर जलपाद ने पूछा, “क्या बात है, आज आप
चल नहीं पा रहे हैं?” “हां, मैं आज भूखा हूं इसलिए चलने में कठिनाई हो रही है।” जलपाद
बोला, “ऐसी क्या बात है। आप साधारण कोटि के छोटे-मोटे मेढकों को खा लिया कीजिए।”
इस प्रकार वह सर्प नित्यप्रति बिना किसी परिश्रम के अपना भोजन पा गया। किन्तु वह
जलपाद यह भी नहीं समझ पाया कि अपने क्षणिक सुख के लिए वह अपने वंश का नाश करने का
भागी बन रहा है। सभी मेढकों को खाने के बाद सर्प ने एक दिन जलपाद को भी खा लिया।
इस तरह मेढकों का समूचा वंश ही नष्ट हो गया।

इसीलिए कहते हैं कि अपने हितैषियों की रक्षा करने से हमारी भी रक्षा होती है।

३.१४ कौवे और उल्लू का युद्ध

दक्षिण देश में महिलारोप्य नाम का एक नगर था। नगर के पास एक बड़ा पीपल का वृक्ष
था। उसकी घने पत्तों से ढकी शाखाओं पर पक्षियों के घोंसले बने हुए थे। उन्हीं में से कुछ घोंसलों
में कौवों के बहुत से परिवार रहते थे। कौवों का राजा वायसराज मेघवर्ण भी वहीं रहता था।
वहाँ उसने अपने दल के लिये एक व्यूह सा बना लिया था। उससे कुछ दूर पर्वत की गुफा में उल्लओं
का दल रहता था। इनका राजा अरिमर्दन था।

दोनों में स्वाभाविक वैर था। अरिमर्दन हर रात पीपल के वृक्ष के चारों ओर चक्कर लगाता
था। वहाँ कोई इकला-दुकला कौवा मिल जाता तो उसे मार देता था। इसी तरह एक-एक करके
उसने सैंकड़ों कौवे मार दिये। तब, मेघवर्ण ने अपने मन्त्रियों को बुलाकर उनसे उलूकराज के
प्रहारों से बचने का उपाय पूछा। उसने कहा, “कठिनाई यह है कि हम रात को देख नहीं सकते
और दिन को उल्लू न जाने कहाँ जा छिपते हैं। हमें उनके स्थान के सम्बन्ध में कुछ भी पता नहीं।
समझ नहीं आता कि इस समय सन्धि, युद्ध, यान, आसन, संश्रय, द्वैधीभाव आदि उपायों में से
किसका प्रयोग किया जाय?”

पहले मेघवर्ण ने ‘उज्जीवी’ नाम के प्रथम सचिव से प्रश्‍न किया। उसने उत्तर दिया —
“महाराज ! बलवान्‌ शत्रु से युद्ध नहीं करना चाहिये। उससे तो सन्धि करना ही ठीक है। युद्ध
से हानि ही हानि है। समान बल वाले शत्रु से भी पहले सन्धि करके, कछुए की तरह सिमटकर,
शक्ति-संग्रह करने के बाद ही युद्ध करना उचित है।”

उसके बाद ‘संजीवी’ नाम के द्वितीय सचिव से प्रश्‍न किया गया। उसने कहा — “महाराज
! शत्रु के साथ सन्धि नहीं करनी चाहिये। शत्रु सन्धि के बाद भी नाश ही करता है। पानी
अग्नि द्वारा गरम होने के बाद भी अग्नि को बुझा ही देता है। विशेषतः क्रूर, अत्यन्त लोभी
और धर्म रहित शत्रु से तो कभी भी सन्धि न करे। शत्रु के प्रति शान्ति-भाव दिखलाने से
उसकी शत्रुता की आग और भी भड़क जाती है। वह और भी क्रूर हो जाता है। जिस शत्रु से हम
आमने-सामने की लड़ाई न लड़ सकें उसे छलबल द्वारा हराना चाहिये, किन्तु सन्धि नहीं करनी
चाहिये। सच तो यह है कि जिस राजा की भूमि शत्रुओं के खून से और उनकी विधवा स्त्रियों के
आँसुओं से नहीं सींची गई, वह राजा होने योग्य ही नहीं।”

तब मेघवर्ण ने तृतीय सचिव अनुजीवी से प्रश्‍न किया। उसने कहा — “महाराज ! हमारा
शत्रु दुष्ट है, बल में भी अधिक है। इसलिये उसके साथ सन्धि और युद्ध दोनों के करने में हानि
है। उसके लिये तो शास्त्रों में यान नीति का ही विधान है। हमें यहाँ से किसी दूसरे देश में
चला जाना चाहिये। इस तरह पीछे हटने में कायरता-दोष नहीं होता। शेर भी तो हमला करने
से पहले पीछे हटता है। वीरता का अभिमान करके जो हठपूर्वक युद्ध करता है वह शत्रु की ही
इच्छा पूरी करता है और अपने व अपने वंश का नाश कर लेता है।”

इसके बाद मेघवर्ण ने चतुर्थ सचिव ‘प्रजीवी’ से प्रश्‍न किया। उसने कहा — “महाराज !
मेरी सम्मति में तो सन्धि, विग्रह और यान, तीनों में दोष है। हमारे लिये आसन-नीति का
आश्रय लेना ही ठीक है। अपने स्थान पर दृढ़ता से बैठना सब से अच्छा उपाय है। मगरमच्छ अपने
स्थान पर बैठकर शेर को भी हरा देता है , हाथी को भी पानी में खींच लेता है। वही यदि
अपना स्थान छोड़ दे तो चूहे से भी हार जाय। अपने दुर्ग में बैठकर हम बड़े से बड़े शत्रु का
सामना कर सकते हैं। अपने दुर्ग में बैठकर हमारा एक सिपाही शत-शत शत्रुओं का नाश कर सकता
है। हमें अपने दुर्ग को दृढ़ बनाना चाहिये। अपने स्थान पर दृढता से खडे़ छोटे-छोटे वृक्षों को
आँधी-तूफान के प्रबल झोंके भी उखाड़ नहीं सकते।”

तब मेघवर्ण ने चिरंजीवी नाम के पंचम सचिव से प्रश्‍न किया। उसने कहा — “महाराज ! मुझे
तो इस समय संश्रय नीति ही उचित प्रतीत होती है। किसी बलशाली सहायक मित्र को अपने
पक्ष में करके ही हम शत्रु को हरा सकते हैं। अतः हमें यहीं ठहर कर किसी समर्थ मित्र की
सहायता ढूंढ़नी चाहिये। यदि एक समर्थ मित्र न मिले तो अनेक छोटे २ मित्रों की सहायता
भी हमारे पक्ष को सबल बना सकती है। छोटे २ तिनकों से गुथी हुई रस्सी भी इतनी मजबूत बन
जाती है कि हाथी को जकड़कर बाँध लेती है।

पांचों मन्त्रियों से सलाह लेने के बाद वायसराज मेघवर्ण अपने वंशागत सचिव स्थिरजीवी के
पास गया। उसे प्रणाम करके वह बोला — “श्रीमान् ! मेरे सभी मन्त्री मुझे जुदा-जुदा राय दे
रहे हैं। आप उनकी सलाहें सुनकर अपना निश्चय दीजिये।”

स्थिरजीवी ने उत्तर दिया — “वत्स ! सभी मन्त्रियों ने अपनी बुद्धि के अनुसार ठीक ही
मन्त्रणा दी है, अपने-अपने समय सभी नीतियाँ अच्छी होती हैं। किन्तु, मेरी सम्मति में तो
तुम्हें द्वैधीभाव, या भेदनीति का ही आश्रय लेना चाहिये। उचित यह है कि पहले हम सन्धि
द्वारा शत्रु में अपने लिये विश्वास पैदा कर लें, किन्तु शत्रु पर विश्वास न करें। सन्धि करके
युद्ध की तैयारी करते रहें; तैयारी पूरी होने पर युद्ध कर दें। सन्धिकाल में हमें शत्रु के निर्बल
स्थलों का पता लगाते रहना चाहिये। उनसे परिचित होने के बाद वहीं आक्रमण कर देना उचित
है।”

मेघवर्ण ने कहा — “आपका कहना निस्संदेह सत्य है, किन्तु शत्रु का निर्बल स्थल किस तरह
देखा जाए?”

स्थिरजीवी — “गुप्तचरों द्वारा ही हम शत्रु के निर्बल स्थल की खोज कर सकते हैं। गुप्तचर
ही राजा की आँख का काम देता है। और हमें छल द्वारा शत्रु पर विजय पानी चाहिये।

मेघवर्ण — “आप जैसा आदेश करेंगे, वैसा ही मैं करुँगा।”

स्थिरजीवी — “अच्छी बात है। मैं स्वयं गुप्तचर का काम करुंगा। तुम मुझ से लड़कर, मुझे
लहू-लुहान करने के बाद इसी वृक्ष के नीचे फेंककर स्वयं सपरिवार ऋष्यमूक पर्वत पर चले जाओ। मैं
तुम्हारे शत्रु उल्लुओं का विश्‍वासपात्र बनकर उन्हें इस वृक्ष पर बने अपने दुर्ग में बसा लूंगा और
अवसर पाकर उन सब का नाश कर दूंगा। तब तुम फिर यहाँ आ जाना।”

मेघवर्ण ने ऐसा ही किया। थोड़ी देर में दोनों की लड़ाई शुरु हो गई। दूसरे कौवे जब उसकी
सहायता को आए तो उसने उन्हें दूर करके कहा — “इसका दण्ड मैं स्वयं दे लूंगा।” अपनी चोंचों के
प्रहार से घायल करके वह स्थिरजीवी को वहीं फैंकने के बाद अपने आप परिवारसहित ऋष्यमूक
पर्वत पर चला गया।

तब उल्लू की मित्र कृकालिका ने मेघवर्ण के भागने और अमात्य स्थिरजीवी से लडा़ई होने की
बात उलूकराज से कह दी। उलूकराज ने भी रात आने पर दलबल समेत पीपल के वृक्ष पर आक्रमण
कर दिया। उसने सोचा — भागते हुए शत्रु को नष्ट करना अधिक सहज होता है। पीपल के वृक्ष
को घेरकर उसने शेष रह गए सभी कौवों को मार दिया।

अभी उलूकराज की सेना भागे हुए कौवों का पीछा करने की सोच रही थी कि आहत
स्थिरजीवी ने कराहना शुरु कर दिया। उसे सुनकर सब का ध्यान उसकी ओर गया। सब उल्लू उसे
मारने को झपटे। तब स्थिरजीवी ने कहा:

“इससे पूर्व कि तुम मुझे जान से मार डालो, मेरी एक बात सुन लो। मैं मेघवर्ण का मन्त्री
हूँ। मेघवर्ण ने ही मुझे घायल करके इस तरह फैंक दिया था। मैं तुम्हारे राजा से बहुत सी बातें
कहना चाहता हूँ। उससे मेरी भेंट करवा दो।”

सब उल्लुओं ने उलूकराज से यह बात कही। उलूकराज स्वयं वहाँ आया। स्थिरजीवी को देखकर
वह आश्‍चर्य से बोला — “तेरी यह दशा किसने कर दी?”

स्थिरजीवी — “देव ! बात यह हुई कि दुष्ट मेघवर्ण आपके ऊपर सेना सहित आक्रमण करना
चाहता था। मैंने उसे रोकते हुए कहा कि वे बहुत बलशाली हैं, उनसे युद्ध मत करो, उनसे सुलह
कर लो। बलशाली शत्रु से सन्धि करना ही उचित है; उसे सब कुछ देकर भी वह अपने प्राणों की
रक्षा तो कर ही लेता है। मेरी बात सुनकर उस दुष्ट मेघवर्ण ने समझा कि मैं आपका हितचिन्तक
हूँ। इसीलिए वह मुझ पर झपट पड़ा। अब आप ही मेरे स्वामी हैं। मैं आपकी शरण आया हूँ। जब मेरे
घाव भर जायंगे तो मैं स्वयं आपके साथ जाकर मेघवर्ण को खोज निकालूंगा और उसके सर्वनाश में
आपका सहायक बनूंगा।”

स्थिरजीवी की बात सुनकर उलूकराज ने अपने सभी पुराने मंत्रियों से सलाह ली। उसके पास
भी पांच मन्त्री थे ” रक्ताक्ष, क्रूराक्ष, दीप्ताक्ष, वक्रनास, प्राकारकर्ण।

पहले उसने रक्ताक्ष से पूछा — “इस शरणागत शत्रु मन्त्री के साथ कौनसा व्यवहार किया
जाय?” रक्ताक्ष ने कहा कि इसे अविलम्ब मार दिया जाय। शत्रु को निर्बल अवस्था में ही मर
देना चाहिए, अन्यथा बली होने के बाद वही दुर्जय हो जाता है। इसके अतिरिक्त एक और बात
है; एक बार टूट कर जुड़ी हुई प्रीति स्नेह के अतिशय प्रदर्शन से भी बढ़ नहीं सकती।”

रक्ताक्ष से सलाह लेने के बाद उलूकराज ने दूसरे मन्त्री क्रूराक्ष से सलाह ली कि
स्थिरजीवी का क्या किया जाय? क्रूराक्ष ने कहा — “महाराज ! मेरी राय में तो शरणागत
की हत्या पाप है।

क्रूराक्ष के बाद अरिमर्दन ने दीप्ताक्ष से प्रश्‍न किया।

दीप्ताक्ष ने भी यही सम्मति दी।

इसके बाद अरिमर्दन ने वक्रनास से प्रश्‍न किया। वक्रनास ने भी कहा — “देव ! हमें इस
शरणागत शत्रु की हत्या नहीं करनी चाहिये। कई बार शत्रु भी हित का कार्य कर देते हैं।
आपस में ही जब उनका विवाद हो जाए तो एक शत्रु दूसरे शत्रु को स्वयं नष्ट कर देता है।

उसकी बात सुनने के बाद अरिमर्दन ने फिर दुसरे मन्त्री ‘प्राकारकर्ण’ से पूछा — “सचिव
! तुम्हारी क्या सम्मति है?”

प्राकारकर्ण ने कहा — “देव ! यह शरणागत व्यक्ति अवध्य ही है। हमें अपने परस्पर के
मर्मों की रक्षा करनी चाहिये।

अरिमर्दन ने भी प्राकारकर्ण की बात का समर्थन करते हुए यही निश्चय किया कि
स्थिरजीवी की हत्या न की जाय। रक्ताक्ष का उलूकराज के इस निश्चय से गहरा मतभेद था।
वह स्थिरजीवी की मृत्यु में ही उल्लुओं का हित देखता था। अतः उसने अपनी सम्मति प्रकट करते
हुए अन्य मन्त्रियों से कहा कि तुम अपनी मूर्खता से उलूकवंश का नाश कर दोगे। किन्तु रक्ताक्ष
की बात पर किसी ने ध्यान नहीं दिया।

उलूकराज के सैनिकों ने स्थिरजीवी कौवे को शैया पर लिटाकर अपने पर्वतीय दुर्ग की ओर
कूच कर दिया। दुर्ग के पास पहुँच कर स्थिरजीवी ने उलूकराज से निवेदन किया — “महाराज !
मुझ पर इतनी कृपा क्यों करते हो? मैं इस योग्य नहीं हूँ। अच्छा हो, आप मुझे जलती हुई आग मेम
डाल दें।”

उलूकराज ने कहा — “ऐसा क्यों कहते हो?”

स्थिरजीवी — “स्वामी ! आग में जलकर मेरे पापों का प्रायश्चित्त हो जायगा। मैं चाहता
हूँ कि मेरा वायसत्व आग में नष्ट हो जाय और मुझ में उलूकत्व आ जाय, तभी मैं उस पापी मेघवर्ण
से बदला ले सकूंगा।”

रक्ताक्ष स्थिरजीवी की इस पाखंडभरी चालों को खूब समझ रहा था। उसने कहा —
“स्थिरजीवी ! तू बड़ा चतुर और कुटिल है। मैं जानता हूँ कि उल्लू बनकर भी तू कौवों का ही
हित सोचेगा।

उलूकराज के अज्ञानुसार सैनिक स्थिरजीवी को अपने दुर्ग में ले गये। दुर्ग के द्वार पर पहुँच
कर उलूकराज अरिमर्दन ने अपने साथियों से कहा कि स्थिरजीवी को वही स्थान दिया जाय
जहाँ वह रहनाचाहे।

स्थिरजीवी ने सोचा कि उसे दुर्ग के द्वार पर ही रहना चाहिये, जिससे दुर्ग से बाहर
जाने का अवसर मिलता रहे।

यही सोच उसने उलूकराज से कहा — “देव ! आपने मुझे यह आदर देकर बहुत लज्जित किया है।
मैं तो आप का सेवक ही हूँ, और सेवक के स्थान पर ही रहना चाहता हूँ। मेरा स्थान दुर्ग के
द्वार पर ही रखिये। द्वार की जो धूलि आप के पद-कमलों से पवित्र होगी उसे अपने मस्तक पर
रखकर ही मैं अपने को सौभाग्यवान मानूंगा।”

उलूकराज इन मीठे वचनों को सुनकर फूले न समाये। उन्होंने अपने साथियों को कहा कि
स्थिरजीवी को यथेष्ट भोजन दिया जाय।

प्रतिदिन स्वादु और पुष्ट भोजन खाते-खाते स्थिरजीवी थोड़े ही दिनों में पहले जैसा मोटा
और बलवान हो गया।

रक्ताक्ष ने जब स्थिरजीवी को हृष्टपुष्ट होते देखा तो वह मन्त्रियों से बोला — “यहाँ
सभी मूर्ख हैं। लेकिन मन्त्रियों ने अपने मूर्खताभरे व्यवहार में परिवर्तन नहीं किया। पहले की
तरह ही वे स्थिरजीवी को अन्न-मांस खिला-पिला कर मोटा करते रहे।

रक्ताक्ष ने यह देख कर अपने पक्ष के साथियों से कहा कि अब यहाँ हमें नहीं ठहरना
चाहिये। हम किसी दूसरे पर्वत की कन्दरा में अपना दुर्ग बना लेंगे।

फिर रक्ताक्ष ने अपने साथियों से कहा कि ऐसे मूर्ख समुदाय में रहना विपत्ति को पास
बुलाना है। उसी दिन परिवारसमेत रक्ताक्ष वहाँ से दूर किसी पर्वत-कन्दरा में चला
गया।

रक्ताक्ष के विदा होने पर स्थिरजीवी बहुत प्रसन्न होकर सोचने लगा — “यह अच्छा ही
हुआ कि रक्ताक्ष चला गया। इन मूर्ख मन्त्रियों में अकेला वही चतुर और दूरदर्शी था।”

रक्ताक्ष के जाने के बाद स्थिरजीवी ने उल्लुओं के नाश की तैयारी पूरे जोर से शुरु करदी।
छोटी-छोटी लकड़ियाँ चुनकर वह पर्वत की गुफा के चारों ओर रखने लगा।

जब पर्याप्त लकड़ियाँ एकत्र हो गई तो वह एक दिन सूर्य के प्रकाश में उल्लुओं के अन्धे होने
के बाद अपने पहले मित्र राजा मेघवर्ण के पास गया, और बोला — “मित्र ! मैंने शत्रु को
जलाकर भस्म कर देने की पूरी योजन तैयार करली है। तुम भी अपनी चोंचों में एक-एक जलती
लकड़ी लेकर उलूकराज के दुर्ग के चारों ओर फैला दो। दुर्ग जलकर राख हो जायगा। शत्रुदल अपने
ही घर में जलकर नष्ट हो जायगा।”

यह बात सुनकर मेघवर्ण बहुत प्रसन्न हुआ। उसने स्थिरजीवी से कहा — “महाराज, कुशल-क्षेम
से तो रहे, बहुत दिनों के बाद आपके दर्शन हुए हैं।”

स्थिरजीवी ने कहा — “वत्स ! यह समय बातें करने का नहीं, यदि किसी शत्रु ने वहाँ
जाकर मेरे यहाँ आने की सूचना दे दी तो बना-बनाया खेल बिगड़ जाएगा। शत्रु कहीं दूसरी जगह
भाग जाएगा। जो काम शीघ्रता से करने योग्य हो, उसमें विलम्ब नहीं करना चाहिए। शत्रुकुल
का नाश करके फिर शांति से बैठ कर बातें करेंगे।

मेघवर्ण ने भी यह बात मान ली। कौवे सब अपनी चोंचों में एक-एक जलती हुई लकड़ी लेकर
शत्रु-दुर्ग की ओर चल पड़े और वहाँ जाकर लकड़ियाँ दुर्ग के चारों ओर फैला दीं। उल्लुओं के घर
जलकर राख हो गए और सारे उल्लू अन्दर ही अन्दर तड़प कर मर गए।

इस प्रकार उल्लुओं का वंशनाश करके मेघवर्ण वायसराज फिर अपने पुराने पीपल के वृक्ष पर आ
गया। विजय के उपलक्ष में सभा बुलाई गई। स्थिरजीवी को बहुत सा पुरस्कार देकर मेघवर्ण ने
उस से पूछा — “महाराज ! आपने इतने दिन शत्रु के दुर्ग में किस प्रकार व्यतीत किये? शत्रु के
बीच रहना तो बड़ा संकटापन्न है। हर समय प्राण गले में अटके रहते हैं।”

स्थिरजीवी ने उत्तर दिया — “तुम्हारी बात ठीक है, किन्तु मैं तो आपका सेवक हूँ। सेवक
को अपनी तपश्चर्या के अंतिम फल का इतना विश्वास होता है कि वह क्षणिक कष्टों की
चिन्ता नहीं करता। इसके अतिरिक्त, मैंने यह देखा कि तुम्हारे प्रतिपक्षी उलूकराज के मन्त्री
महामूर्ख हैं। एक रक्ताक्ष ही बुद्धिमान था, वह भी उन्हें छोड़ गया। मैंने सोचा, यही समय
बदला लेने का है। शत्रु के बीच विचरने वाले गुप्तचर को मान-अपमान की चिन्ता छोड़नी ही
पड़ती है। वह केवल अपने राजा का स्वार्थ सोचता है। मान-मर्यादा की चिन्ता का त्याग
करके वह स्वार्थ-साधन के लिये चिन्ताशील रहता है।

वायसराज मेघवर्ण ने स्थिरजीवी को धन्यवाद देते हुए कहा — “मित्र, आप बड़े पुरुषार्थी
और दूरदर्शी हैं। एक कार्य को प्रारंभ करके उसे अन्त तक निभाने की आपकी क्षमता अनुपम है।
संसारे में कई तरह के लोग हैं। नीचतम प्रवृत्ति के वे हैं जो विघ्न-भय से किसी भी कार्य का
आरंभ नहीं करते, मध्यम वे हैं जो विघ्न-भय से हर काम को बीच में छोड़ देते हैं, किन्तु उत्कृष्ट
वही हैं जो सैंकड़ों विघ्नों के होते हुए भी आरंभ किये गये काम को बीच में नहीं छोड़ते। आपने मेरे
शत्रुओं का समूल नाश करके उत्तम कार्य किया है।”

स्थिरजीवी ने उत्तर दिया — “महाराज ! मैंने अपना धर्म पालन किया। दैव ने आपका साथ
दिया। पुरुषार्थ बहुत बड़ी वस्तु है, किन्तु दैव अनुकूल न हो तो पुरुषार्थ भी फलित नहीं
होता। आपको अपना राज्य मिल गया। किन्तु स्मरण रखिये, राज्य क्षणस्थायी होते हैं। बड़े-बड़े
विशाल राज्य क्षणों में बनते और मिटते रहते हैं। शाम के रंगीन बादलों की तरह उनकी आभा भी
क्षणजीवी होती है। इसलिये राज्य के मद में आकर अन्याय नहीं करना, और न्याय से प्रजा का
पालन करना। राजा प्रजा का स्वामी नहीं, सेवक होता है।”

इसके बाद स्थिरजीवी की सहायता से मेघवर्ण बहुत वर्षों तक सुखपूर्वक राज्य करता
रहा।